राजेश, क्या कहूं, बिरादर अज्ञेय का नाम तुमने गलत लिखा है। चलो भला नाम में क्या रखा है पर उससे भी गलत बात तुमने कविता भी गलत लिखी है। एसा न करो । जानकारी अच्छी है मसिजीवी
प्रियवर, "ब्लाग" लिखने के , कुछ अपने फायदे और नुकसान होते हैं। सबसे बड़ा फायदा तो यह होता है कि यह अनभिव्यक्ति की पीड़ा को हर लेता है और , आप का लेखन , भले ही किसी पत्र-पत्रिका में न प्रकाशित हो , दूसरों तक पहुँचता है । दूसरी , सबसे बड़ी मौज जो है , कि लेखक-पाठक के बीच के बीच संवादहीनता का अन्तराल मिट जाता है । इसलिये , जब आपने , अपनी टिप्पणी "क्या कहूँ" से प्रारम्भ की , तो हमें ऐसा लगा , कि , कोई पाठक , मेरी किसी कृति से अनावश्यक ही व्यथित हो गया है। पर , फिर भी आपने अपनी बातें रखी।
जो बात मुझे आश्चर्यचकित करती है , कि जिस लेख की बात आपने की है , वह लेख , मेरा कम्प्यूटर , कम से कम , मुझे अपने इस ब्लाग "छाया" पर नहीं दिखा रहा है । इसलिये , मैं इसमें कोई संशोधन नहीं कर पा रहा । मेरे ये दोनों लेख मेरे दूसरे ब्लाग "अभिप्राय" पर भी प्रकाशित हैं , जहाँ "अज्ञेय" के नाम को मैंने संशोधित कर दिया है। "छाया" पर चूँकि , यह लेख ही नहीं दिख रहा है , इसलिये संशोधन संभव नहीं है।
दूसरी बात , कविता को ले कर । तो , मैं आप का आभार महसूस करूँगा , यदि इन पंक्तियों का विशुद्ध रूप , आप मुझे उपलब्ध करा सकें । क्योंकि , मैंने यह पंक्तियाँ , लगभग २० वर्षों पहले पढ़ी थीं । इसलिये मुमकिन है , शब्दों का क्रम मुझे , ठीक तौर से याद न हो । लेकिन , जहाँ तक बन पड़ा , मैंने मूलभावों को अक्षुण्ण रूप में रखने की कोशिश की ।
बहरहाल , त्रुटियों की ओर ध्यान आकृष्ट कराने के लिये मैं आभारी हूँ ।
3 Comments:
बढ़िया लिखा है ।बधाई।
राजेश,
क्या कहूं,
बिरादर अज्ञेय का नाम तुमने गलत लिखा है। चलो भला नाम में क्या रखा है पर उससे भी गलत बात तुमने कविता भी गलत लिखी है। एसा न करो । जानकारी अच्छी है
मसिजीवी
प्रियवर,
"ब्लाग" लिखने के , कुछ अपने फायदे और नुकसान होते हैं। सबसे बड़ा फायदा तो यह होता है कि यह अनभिव्यक्ति की पीड़ा को हर लेता है और , आप का लेखन , भले ही किसी पत्र-पत्रिका में न प्रकाशित हो , दूसरों तक पहुँचता है ।
दूसरी , सबसे बड़ी मौज जो है , कि लेखक-पाठक के बीच के बीच संवादहीनता का अन्तराल मिट जाता है ।
इसलिये , जब आपने , अपनी टिप्पणी "क्या कहूँ" से प्रारम्भ की , तो हमें ऐसा लगा , कि , कोई पाठक , मेरी किसी कृति से अनावश्यक ही व्यथित हो गया है। पर , फिर भी आपने अपनी बातें रखी।
जो बात मुझे आश्चर्यचकित करती है , कि जिस लेख की बात आपने की है , वह लेख , मेरा कम्प्यूटर , कम से कम , मुझे अपने इस ब्लाग "छाया" पर नहीं दिखा रहा है । इसलिये , मैं इसमें कोई संशोधन नहीं कर पा रहा । मेरे ये दोनों लेख मेरे दूसरे ब्लाग "अभिप्राय" पर भी प्रकाशित हैं , जहाँ "अज्ञेय" के नाम को मैंने संशोधित कर दिया है। "छाया" पर चूँकि , यह लेख ही नहीं दिख रहा है , इसलिये संशोधन संभव नहीं है।
दूसरी बात , कविता को ले कर । तो , मैं आप का आभार महसूस करूँगा , यदि इन पंक्तियों का विशुद्ध रूप , आप मुझे उपलब्ध करा सकें । क्योंकि , मैंने यह पंक्तियाँ , लगभग २० वर्षों पहले पढ़ी थीं । इसलिये मुमकिन है , शब्दों का क्रम मुझे , ठीक तौर से याद न हो । लेकिन , जहाँ तक बन पड़ा , मैंने मूलभावों को अक्षुण्ण रूप में रखने की कोशिश की ।
बहरहाल , त्रुटियों की ओर ध्यान आकृष्ट कराने के लिये मैं आभारी हूँ ।
-राजेश
(सुमात्रा)
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